देश 2019 में होने वाले लोकसभा आम-चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है. और जैसा लाज़मी है- भाजपा नेतृत्व ने अपनी पूरी ताकत इस बात को साबित करने में लगा रखी है कि मोदी का करिश्मा 2014 की ही तरह अभी भी बरक़रार है. ऐसे समय में पहली बार पार्टी के अंदर से ही उन पर सवाल उठने लगे है.
हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों में पार्टी की हार के बाद भाजपा नेता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) के नजदीकी नितिन गडकरी ने हाल ही में दो अलग-अलग अवसर पर मोदी और शाह के नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए दो बयान दिए.
पहला बयान, जो उन्होंने 23 दिसंबर को पुणे में दिया, वहां कहा, ‘सफलता के कई पिता होते है, वहीं असफलता अनाथ होती है. नेतृत्व में असफलता और हार की जिम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति होना चाहिए. और जब-तक वो इसके लिए तैयार नहीं होते, तब-तक संघठन के प्रति उनकी निष्ठा साबित नहीं होती.’
इसके दो दिन बाद उन्होंने एक और बयान में कहा, ‘अगर मैं पार्टी का अध्यक्ष होता, तो पार्टी के एमपी और एमएलए के प्रदर्शन की जिम्मेदारी भी मेरी होती है.’
यह बयान भले ही गडकरी ने दिए हों, लेकिन यह भाजपा उन सारे नेताओं की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जो मोदी-शाह की जोड़ी के चलते पिछले साढ़े चार सालों में नेपथ्य में चले गए. उन्हें संघ का भी आशीर्वाद प्राप्त है.
अब सवाल यह उठता है, जब भाजपा के यह नेता और संघ यह जानता है कि 2019 में मोदी-शाह की चुनाव जीतने की क्षमता का कोई तोड़ नहीं है, तब वो मोदी-शाह के नेतृत्व पर सवाल क्यों उठा रहे है?
भाजपा के यह नेता यह जानते है कि अगर मोदी वापस अपने दम पर पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आने में सफल हो गए तो अपनी दूसरी पारी में पार्टी पर उनकी पकड़ और मजबूत हो जाएगी, या कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भाजपा पूरी तरह से मोदीमय हो जाएगी और वो सारे के सारे ‘मार्गदर्शक मंडल’ में भेज दिए जाएंगे.
बीते साढ़े चार सालों में मोदी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ भले ही न कर पाएं, लेकिन उन्होंने भाजपा को उनके अलावा अन्य नेताओं से मुक्त जैसा कर दिया है. वो पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं चाहते जिसकी कोई जमीनी पकड़ हो. मगर,
भाजपा को सत्ता में आने के लिए जोड़-तोड़ की जरूरत होती है, तो फिर भाजपा के और से गडकरी जैसे अनेक नेताओं की वक़त बढ़ जाएगी. इतना ही नहीं उनके अस्तित्व को कांग्रेस के केंद्र में सत्ता में वापस आने से कोई खतरा नहीं है, उल्टा, उससे मोदी-शाह जोड़ी की पार्टी पर पकड़ ढीली होगी और उन्हें वापस पनपने का मौका मिलेगा.
संघ की शिकायत यह है कि मोदी ने संघ से काफी हद तक हिंदुत्व का मुद्दा भी छीन लिया. मोदी ने हिंदुत्व के मुद्दे की परिभाषा और नेतृत्व दोनों बदल दिया: एक तो, उन्होंने अपने आपको सारे देश में हिंदुत्व का सबसे बड़ा मुखौटा बना पेश कर दिया है, और दूसरा उन्होंने इस काम के लिए योगी आदित्यनाथ के रूप में एक और मुखौटा मिल गया.
एक तरह से हिंदुत्व के एजेंडे का नेतृत्व संघ और विश्व हिंदू परिषद के हाथों से निकालकर योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं के हाथ में दे दिया, जो संघ के कैडर भी नहीं है.
मोदी के लिए अच्छा यह है क्योंकि इस तरह से वो संघ को भी उसकी जगह दिखा पाने में सफल होते है और योगी के पास राष्ट्रीय स्वयं सेवक जैसी कोई संगठनात्मक ताकत नहीं जिसके जरिए वो मोदी-शाह पर कोई दबाव बना सकें.
इतना ही नहीं, मोदी-शाह ने संघ के ‘हिंदू राष्ट्र’ के मुद्दे को काफी हद-तक गोहत्या और मुस्लिम विरोध तक ही सीमित कर दिया और उन्होंने इस मुद्दे पर एक उग्र भीड़ खड़ी कर दी. संघ के पुराने दौर में गोरक्षा का मुद्दा कभी इतना हावी नहीं था.
राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे संघ के अनेक मुद्दे पिछले पांच सालों से गायब है, यहां तक कि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार तक बना ली और संघ देखता रह गया. संघ के स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ जैसे अनेक फ्रंट तो बेमानी से हो गए है.
मोदी सरकार ने जीएसटी और नोटबंदी जैसे दो बड़े फैसलों के अलावा जिस तरह से ई-कॉमर्स और एफडीआई को बढ़ावा दिया है, उससे संघ की आर्थिक रीढ़ की हड्डी और काफी प्रभावशाली वैश्य समाज नाराज़ हुआ है और संघ इस मुद्दे पर इस वर्ग की आवाज़ भी अपनी सरकार तक नहीं पहुंचा पाया, वहीं कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौर में स्वदेशी जागरण देशी व्यापारियों के हितों को लेकर काफी मुखर था.
इसलिए, पिछले छह माह से संघ लगातार अपना अस्तित्व अनेक तरह से साबित करने में लगा है- कभी वो प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाता है, तो कभी दिल्ली में सभी वर्गों के साथ तीन दिन के लिए सभी वर्गों से संवाद रखते है. आखिरकार, संघ ने पिछले कुछ माह से राम मंदिर का राग वापस अलापा है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संघ के लिए केंद्र में सत्ता मंज़िल की सीढ़ी है, अपने आप में मंज़िल नहीं. संघ ने पचास साल की लंबी मेहनत के बाद जनसंघ से भाजपा तक मोदी के नेतृत्व में बहुमत वाली अपनी सरकार बनाने का सफ़र तय किया है. वो कांग्रेस की तरह सत्ता में काबिज भर रहने की सोच रखने वाले लोगों का समूह भर नहीं है.
उसके लिए विचारधारा सर्वोपरि है. उसके लिए बाजपेयी हो या आडवाणी सब एक मोहरा थे, जब उसे लगा कि मोदी के सहारे उसका सपना पूरा हो सकता है, तो उसने भाजपा को दो से अस्सी सीट पर पहुंचाने वाले और राम मंदिर मुद्दे के पुरोधा आडवाणी को बाजू कर मोदी के लिए हामी भरने में कोई देरी नहीं की.
वो कभी भी ऐसे किसी भी नेता को मंजूर नहीं करेगी जो उसकी विचारधारा और ताकत से भी ज्यादा कद्दावर दिखने लगे. अगर वो ऐसा होने देती है, तो देखते-देखते वो नेता उसपर भी हावी हो जाएंगे और वो भी मार्गदर्शक मंडल की स्थिति में आ जाएगी. और, मोदी-शाह जिस तरीके से काम करते है, वो यह क्षमता रखते है.
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग यह मानता है कि भाजपा और संघ के बीच तनाव की जो ख़बरें बीच-बीच में आती हैं, उसका कोई बड़ा अर्थ निकालना सही नहीं है, वो मानते है- अंत: मोदी और संघ एक दूसरे के पूरक हैं. लेकिन, यह बाजपेयी और आडवाणी के दौर तक सही था, अब नहीं.
मोदी और शाह, आडवाणी और बाजपेयी की तरह विचारधारा से चलने वाले नेता नहीं है, वो भले ही कभी संघ के स्वयं सेवक रहे हो, लेकिन आज वो कॉरपोरेट और राजनेताओं के एक ऐसे गुट का प्रतिनिधित्व करते है, जिसके लिए सत्ता की ताकत सबसे जरूरी है.
संघ ने भले ही उनके सहारे अपना एजेंडा पूरा करने का सपना देखा हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी के 2014 के चुनाव प्रचार में लगने वाली हजारों करोड़ रुपए की राशि कॉरपोरेट समूह ने अपने एजेंडे के लिए खर्च की थी, न कि संघ के एजेंडे के लिए.
और शायद इसलिए ‘भाजपा सरकार’ की बजाए ‘मोदी सरकार’ के नारे पर सहमति हुई. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए, मोदी-शाह ने बाजपेयी और आडवाणी की तरह लंबे समय तक केंद्र की राजनीति में रहकर अपने व्यवहार, वरिष्ठता और वैचारिक क्षमता के दम पर पार्टी में पकड़ नहीं बनाई, बल्कि एक झटके में केंद्र की सत्ता में आकर पार्टी पर अपनी पकड़ बना ली.
और यह सब संभव हुआ कॉरपोरेट मदद से खड़े किए गए प्रचार तंत्र से. और यह तंत्र अभी किसी और नेता के लिए खड़ा करना संभव नहीं है. आज मोदी-शाह के रूप में सत्ता और पार्टी का मुखिया पद दो जिस्म-एक जान जैसा अपने में समेट लिया और एक तरह से इनकी सत्ता और पार्टी पर उसी तरह की पकड़ हो गई जैसे कभी इंदिरा गांधी की कांग्रेस में थी.
लेकिन, संघ कभी भी भाजपा को कांग्रेस की राह पर जाते नहीं देख सकता. चाहे उसे इसके लिए कितने भी कड़े कदम क्यों न उठाने पड़े.
अब देखना यह होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी भले ही कांग्रेस मुक्त भारत का सपना साकार न कर पाई हो, लेकिन क्या मोदी-शाह युग के बाद से हाशिए पर पड़े भाजपा के नेताओं और संघ की जोड़ी 2019 में मोदी-शाह को अपनी जगह दिखा पाने में सफल हो पाती है और भाजपा को मोदी-शाह की जकड़न से मुक्त कर पाती है?
क्या मोदी-शाह संघ के निर्देशों का पालन कर उसकी ताकत को पुन: स्वीकार करते है? मेरा यह स्पष्ट मानना है कि 2019 का चुनाव सिर्फ कांग्रेस ही नहीं संघ और भाजपा के बचे-खुचे नेताओं का भी अस्तित्व तय करेगा.